पुलिस की लापरवाही ने छीने 17 साल, एक अक्षर की गलती ने निर्दोष को बनाया गैंगस्टर; कोर्ट ने बरी कर पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई के आदेश दिए
कानून व्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा के लिए गठित पुलिस बल की एक चूक कैसे किसी निर्दोष की ज़िंदगी को बर्बाद कर सकती है, इसका ज्वलंत उदाहरण है मैनपुरी जिले के नगला भंत निवासी राजवीर की कहानी। एक अक्षर की गलती ने उसे 22 दिन जेल की सलाखों के पीछे और 17 साल तक अदालतों के चक्कर काटने को मजबूर कर दिया। अब अदालत ने उसे बाइज्जत बरी कर दिया है और संबंधित पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई के निर्देश दिए हैं।
घटना की शुरुआत – साल 2008
31 अगस्त 2008 को मैनपुरी शहर कोतवाली के तत्कालीन इंस्पेक्टर ओमप्रकाश ने गिरोहबंद अपराध अधिनियम (गैंगस्टर एक्ट) के तहत मनोज यादव, प्रवेश यादव, भोला और राजवीर के खिलाफ केस दर्ज कराया। जांच की जिम्मेदारी दन्नाहार थाना पुलिस को दी गई और तत्कालीन एसआई शिवसागर दीक्षित ने 1 दिसंबर 2008 को राजवीर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।
जांच में राजवीर के खिलाफ तीन पुराने आपराधिक मुकदमे भी दिखाए गए — जबकि ये मुकदमे असल में उसके भाई रामवीर पुत्र मोहर सिंह के खिलाफ दर्ज थे। नाम की समानता और लापरवाही के चलते राजवीर को फर्जी तरीके से अभियुक्त बना दिया गया।
कोर्ट में गुहार और पुलिस की दूसरी लापरवाही
राजवीर ने अपने अधिवक्ता के माध्यम से उस समय आगरा में गैंगस्टर एक्ट की विशेष अदालत में प्रार्थनापत्र दायर किया, जिसमें बताया गया कि पुलिस ने गलत व्यक्ति को अभियुक्त बना दिया है। कोर्ट ने मामले की गंभीरता को समझते हुए इंस्पेक्टर ओमप्रकाश और विवेचक शिवसागर दीक्षित को तलब किया।
कोर्ट में इंस्पेक्टर ओमप्रकाश ने स्वयं स्वीकार किया कि राजवीर का नाम गलती से केस में दर्ज हो गया और आपराधिक इतिहास उसके भाई रामवीर का है। कोर्ट ने राजवीर को 20,000 रुपये के निजी मुचलके पर जेल से रिहा करने का आदेश दिया।
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लेकिन पुलिस ने दोबारा की वही गलती
हालांकि कोर्ट के स्पष्ट निर्देश के बावजूद पुलिस ने लापरवाही जारी रखी। विवेचक ने राजवीर का नाम हटाकर रामवीर का नाम जोड़ने के बजाय, चार्जशीट राजवीर, मनोज, प्रवेश और भोला के खिलाफ ही दाखिल कर दी।
17 साल तक कोर्ट में चला केस, अब जाकर मिला न्याय
2012 में यह मामला ट्रायल पर आया। मैनपुरी में गैंगस्टर एक्ट की विशेष अदालत बनने के बाद यहीं इसकी सुनवाई हुई। राजवीर के अधिवक्ता विनोद कुमार यादव ने कोर्ट में पूरी मेहनत से पैरवी की और यह साबित किया कि राजवीर का इस मुकदमे से कोई लेना-देना नहीं था।
अब 17 साल बाद, एडीजे विशेष न्यायाधीश (गैंगस्टर एक्ट) स्वप्नदीप सिंघल ने साक्ष्यों के अभाव और पुलिस की गलती को ध्यान में रखते हुए राजवीर को बाइज्जत बरी कर दिया। साथ ही पुलिस अधिकारियों की लापरवाही के लिए एसपी को कार्रवाई के निर्देश भी दिए।
प्रशासन की खामोशी भी सवालों के घेरे में
इस पूरे मामले में डीएम और एसपी की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। राजवीर और उसके अधिवक्ता की बार-बार शिकायतों के बावजूद किसी स्तर पर कार्रवाई नहीं की गई। यदि समय पर जांच की गई होती, तो शायद राजवीर की जिंदगी के 17 साल यूं बर्बाद न होते।
निष्कर्ष:
यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र और पुलिस तंत्र की जवाबदेही का प्रश्न है। एक अक्षर की गलती ने एक निर्दोष को “गैंगस्टर” बना दिया। अब सवाल है — क्या सिर्फ बरी हो जाना पर्याप्त है? या सिस्टम को जवाबदेह बनाने की जरूरत है?