सपेरा समाज का कोर्ट: जहां जलती रॉड से तय होता है दोष
देश के कानूनी सिस्टम से परे, मैनपुरी जिले की किशनी तहसील के नगला बील गांव में स्थित है एक अनोखा और पारंपरिक न्यायालय—सपेरा समाज का कोर्ट। यह गांव भले ही आम लोगों के लिए अनजान हो, लेकिन पूरे देश के सपेरा समुदाय के लिए यह किसी पवित्र तीर्थ से कम नहीं है।
करीब ढाई हजार की आबादी वाला नगला बील पूरी तरह से सपेरा समुदाय का गांव है। यहीं पर स्थित है उनका सर्वोच्च सजातीय न्यायालय, जिसे पूरे देश के सपेरों में “भारत के सर्वोच्च न्यायालय” जैसा दर्जा प्राप्त है।
🔹 न्यायाधीश हैं, लेकिन वकील या जज नहीं
यहां कोई भी न्यायाधीश या वकील कानूनी डिग्रीधारक नहीं होते। इसके बावजूद उनके निर्णयों को पूरे भारत में फैले सपेरा समाज में मान्यता प्राप्त है। वर्तमान में मुख्य न्यायकर्ता जोरानाथ हैं, जिन्हें हाल ही में चुना गया। इससे पहले मलूकनाथ इस पद पर थे, जिनका हाल ही में देहांत हो गया।
🔸 कैसे हुई शुरुआत?
मुख्य न्यायाधीश जोरानाथ बताते हैं कि जब पंचायतों और प्रशासन के फैसलों से समुदाय में असंतोष बढ़ा, तो इस पारंपरिक अदालत की नींव रखी गई, ताकि सपेरा समाज की पुरानी न्याय परंपराएं जीवित रहें।
⚖️ न्याय की प्रक्रिया: सांच को आंच नहीं!
यहां सुनवाई आमतौर पर गंभीर मामलों जैसे कि मारपीट, लड़की भगाना, चोरी आदि में होती है। इस अदालत का सबसे खास पहलू है—अग्नि परीक्षा जैसी जांच प्रणाली।
🔥 कैसे होती है सुनवाई?
आरोपी को पीपल के सात पत्तों पर रखी गई गर्म लोहे की मोटी रॉड को हाथ में लेकर सात कदम चलना पड़ता है।
यदि उसके हाथ जल जाते हैं, तो उसे दोषी माना जाता है।
यह पूरी प्रक्रिया “सांच को आंच नहीं” के सिद्धांत पर आधारित मानी जाती है।
📜 परंपरा या अंधविश्वास?
यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि क्या यह प्रक्रिया आज के आधुनिक न्यायिक मूल्यों से मेल खाती है? फिर भी, सपेरा समाज इसे अपनी संवैधानिक पहचान और आस्था से जोड़कर
देखता है, और इस परंपरा को वर्षों से मान्यता प्राप्त है।