शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के नाम पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में लिए गए फैसले ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। सरकार ने प्रदेश के करीब 5,000 प्राथमिक और जूनियर स्कूलों को बंद करने का निर्णय लिया है, जिनमें 50 से कम छात्र हैं। तर्क यह दिया गया है कि ऐसे छात्रों को नजदीकी स्कूलों में स्थानांतरित किया जाएगा, जिससे संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सके।
लेकिन इस कदम पर शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अभिभावकों ने गहरी चिंता जताई है। उनका कहना है कि यह फैसला ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के अधिकार और विशेषकर लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।
ग्रामीण भारत में शिक्षा को लगेगा झटका
देश के छह लाख से अधिक गांवों में अभी भी शिक्षा का बुनियादी ढांचा पूरी तरह मजबूत नहीं हो पाया है। ऐसे में स्कूल बंद होने से बच्चों, खासकर लड़कियों के लिए लंबी दूरी तय कर स्कूल जाना मुश्किल हो जाएगा, जिससे उनका नामांकन और उपस्थिति दोनों प्रभावित होंगे।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के फैसले बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की पहले से ही कमजोर साक्षरता दर को और गिरा सकते हैं।
लड़कियों की शिक्षा पर सबसे बड़ा असर
पहले ही उत्तर भारत में लड़कियों की साक्षरता दर चिंताजनक रूप से कम है। अब यदि स्कूल दूर चले गए तो अभिभावक उन्हें पढ़ने भेजने से हिचकिचाएंगे, जिससे बालिका शिक्षा को तगड़ा झटका लग सकता है।
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CUET (कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट) लागू होने के बाद भी लड़कियों के दाखिले में करीब 30% की गिरावट दर्ज की गई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि ये सभी कारक मिलकर लड़कियों की उच्च शिक्षा की राह में नई बाधाएं खड़ी कर रहे हैं।
कानूनी पक्ष की अनदेखी?
शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) के अनुसार, कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों के लिए 1 किमी के दायरे में स्कूल, और कक्षा 6 से 8 तक के छात्रों के लिए 3 किमी के भीतर स्कूल उपलब्ध कराना अनिवार्य है। सवाल उठता है कि क्या सरकार ने यह कदम उठाते समय इस कानून को ध्यान में रखा?
निष्कर्ष: सुधार बनाम व्यवहार
सरकारी तर्क अपनी जगह सही हो सकता है, लेकिन जमीनी हकीकत को नजरअंदाज कर लिए गए निर्णयों का असर लाखों बच्चों के भविष्य पर पड़ सकता है। ज़रूरत है ऐसे फैसलों पर पुनर्विचार की, ताकि सुधार के नाम पर शिक्षा से खिलवाड़ न हो।